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सूफ़ीनामा (कविता) / कैलाश वाजपेयी
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04:45, 15 मार्च 2009
आग जले जिस्म का एक ही इलाज है
बिजली गिर जाए
वही धूप
बती ध्न्य
बत्ती धन्य
होती है
जो अपने को खाये
खाती चली जाए.
</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
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