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रसवन्ती (कविता) / रामधारी सिंह "दिनकर"
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12:25, 30 मार्च 2009
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।
तॄणों में कभी खोजता फिरा
<br>
विकल मानवता का कल्याण,
<br>
बैठ खण्डहर मे करता रहा
<b>
कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.
<br>
S.K.Jhingan
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