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घर की याद / भवानीप्रसाद मिश्र

182 bytes removed, 05:14, 1 अप्रैल 2009
|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र
}}
 <poem>
आज पानी गिर रहा है,
 
बहुत पानी गिर रहा है,
 
रात भर गिरता रहा है,
 
प्राण मन घिरता रहा है,
 बहुत पानी गिरता गिर रहा है, 
घर नज़र में तिर रहा है,
 
घर कि मुझसे दूर है जो,
 
घर खुशी का पूर है जो,
 
घर कि घर में चार भाई,
 
मायके में बहिन आई,
 
बहिन आई बाप के घर,
 
हाय रे परिताप के घर!
 
घर कि घर में सब जुड़े है,
 
सब कि इतने कब जुड़े हैं,
 
चार भाई चार बहिनें,
 भुजा भाई प्‍यार प्यार बहिनें,
और माँ‍ बिन-पढ़ी मेरी,
 
दुख में वह गढ़ी मेरी
 
माँ कि जिसकी गोद में सिर,
 
रख लिया तो दुख नहीं फिर,
 माँ कि जिसकी स्‍नेहस्नेह-धारा, 
का यहाँ तक भी पसारा,
 
उसे लिखना नहीं आता,
 
जो कि उसका पत्र पाता।
 
पिताजी जिनको बुढ़ापा,
 एक क्षण भी नहीं व्‍यापाव्यापा, जो अभी भी दौर दौड़ जाएँ, 
जो अभी भी खिलखिलाएँ,
 
मौत के आगे न हिचकें,
 
शेर के आगे न बिचकें,
 
बोल में बादल गरजता,
 
काम में झंझा लरजता,
 
आज गीता पाठ करके,
 
दंड दो सौ साठ करके,
 
खूब मुदगर हिला लेकर,
 
मूठ उनकी मिला लेकर,
 
जब कि नीचे आए होंगे,
 
नैन जल से छाए होंगे,
 
हाय, पानी गिर रहा है,
 
घर नज़र में तिर रहा है,
 
चार भाई चार बहिनें,
 भुजा भाई प्‍यार प्यार बहिने, 
खेलते या खड़े होंगे,
 
नज़र उनको पड़े होंगे।
 
पिताजी जिनको बुढ़ापा,
 एक क्षण भी नहीं व्‍यापाव्यापा
रो पड़े होंगे बराबर,
 
पाँचवे का नाम लेकर,
 
पाँचवाँ हूँ मैं अभागा,
 
जिसे सोने पर सुहागा,
 
पिता जी कहते रहें है,
प्यार में बहते रहे हैं,
प्‍यार में बहते रहे हैं,  आज उनके स्‍वर्ण स्वर्ण बेटे, लगे होंगे उन्‍हें उन्हें हेटे, क्‍योंकि क्योंकि मैं उनपर सुहागा 
बँधा बैठा हूँ अभागा,
 
और माँ ने कहा होगा,
 
दुख कितना बहा होगा,
 
आँख में किस लिए पानी,
वहाँ अच्छा है भवानी,
वहाँ अच्‍छा है भवानी,  वह तुम्‍हारा तुम्हारा मन समझकर, 
और अपनापन समझकर,
 गया हो है सो ठिक ठीक ही है, यह तुम्‍हारी तुम्हारी लीक ही है, 
पाँव जो पीछे हटाता,
 
कोख को मेरी लजाता,
 इस तरह होओ न कच्‍चेकच्चे, रो पड़ेंगे और बच्‍चेबच्चे
पिताजी ने कहा होगा,
 
हाय, कितना सहा होगा,
 
कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ,
 
धीर मैं खोता, कहाँ हूँ,
 
हे सजीले हरी सावन,
 हे कि मेरी पुण्‍य पुण्य पावन, 
तुम बरस लो वे न बरसें,
 
पाँचवे को वे न तरसें,
 
मैं मजे़ में हूँ सही है,
 
घर नहीं हूँ बस यही है,
 
किंतु यह बस बड़ा बस है,
 
इसी बस से सब विरस है,
 
किंतु उनसे यह न कहना,
 उन्‍हें उन्हें देते धिर धीर रहना, उन्‍हें उन्हें कहना लिख रहा हूँ, उन्‍हें उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ, 
काम करता हूँ कि कहना,
 
नाम करता हूँ कि कहना,
 
चाहते है लोग कहना,
 
मत करो कुछ शोक कहना,
 और कहना मस्‍त मस्त हूँ मैं, कातने में व्‍यस्‍त व्यस्‍त हूँ मैं, वज़न सत्‍तर सत्तर सेर मेरा, 
और भोजन ढेर मेरा,
 
कूदता हूँ, खेलता हूँ,
 
दुख डट कर ठेलता हूँ,
 और कहना मस्‍त मस्त हूँ मैं, यों न कहना अस्‍त अस्त हूँ मैं, 
हाय रे, ऐसा न कहना,
 
है कि जो वैसा न कहना,
 
कह न देना जागता हूँ,
 
आदमी से भागता हूँ,
 
कह न देना मौन हूँ मैं,
 
खुद न समझूँ कौन हूँ मैं,
 
देखना कुछ बक न देना,
 उन्‍हें उन्हें कोई शक न देना, 
हे सजीले हरे सावन,
 हे कि मेरे पुण्‍य पण्य पावन, 
तुम बरस लो वे न बरसे,
 
पाँचवें को वे न तरसें।
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