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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: ''' आओ मंदिर मस्जिद खेलेंमाँ का नाच<br>&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[रामकुमार कृषकबोधिसत्व]]
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आओ मंदिर मस्जिद खेलें खूब पदायें मस्जिद को वहाँ कई स्त्रियाँ थींकल्पित जन्मभूमि को जीतें और हरायें मस्जिद को जो नाच रही थीं, गाते हुए
सिया-राममय सब जग जानी सारे जग वे खेत में राम रमा नाच रही थीं याफिर आंगन में यह उन्हें भी नहीं पता थाएक मटमैले वितान के नीचे थाचल रहा यह मस्जिद, क्यों मस्जिद चलो हटायें मस्जिद को नाच ।
तोड़ें दिल कोई पीली साड़ी पहने थीकोई धानीकोई गुलाबी, कोई जोगन-सीसब नाचते हुए मदद कर रही थींएक-दूसरे कीथोड़ी देर नाच कर दूसरी के हर मंदिर को पत्थर का मंदिर गढ़ लें लिएमानवता पैरों हट जाती थीं वे नाचने की जूती यह जतलायें मस्जिद को जगह से ।
बाबर बर्बर होगा लेकिन हम भी उससे घाट नहीं कुछ देर बाद बारी आई माँ के नाचने कीवह खाता उसने बहुत सधे ढंग सेशुरू किया नाचनागाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके सेपुराना गीतमाँ के बाद नाचना था कसम खुदा की हम खा जायें मस्जिद को जिन्हें वे भीजो नाच चुकी थीं वे भी अचम्भितमन ही मन नाच रही थीं माँ के साथ ।
मध्यकाल की खूँ रेज़ी मटमैले वितान के नीचेइस छोर से वर्तमान को रंगें चलो उस छोर तक नाच रही थी माँपैरों में बिवाइयाँ थीं गहरे तक फटीटूट चुके थे घुटने कई बारझुक चली थी कमरपर जैसे भँवर घूमता हैजैसे बवंडर नाचता है वैसेअपनी-अपनी कुर्सी का भवितव्य बनायें मस्जिद को नाच रही थी माँ ।
राम-नाम की लूट मची है मर्यादा को क्यों छोड़ें आज बहुत दिनों बाद उसेलूटपाट करते अब सरहद पार करायें मस्जिद को मिला था नाचने का मौकाऔर वह नाच रही थी बिना रुकेगा रही थी बहुत पुराना गीतगहरे सुरों में ।
देश हमारा है तोंदों तक नस्लवाद तक आज़ादी अचानक ही हुआ माँ का गाना बन्दइसी मुख्य धारा पर नाचना जारी रहावह इतनी गति में आने को धमकायें मस्जिद को थी कि परबसघूमती जा रही थीफिर गाने की जगह उठा विलाप का स्वरऔर फैलता चला गया उसका वितान ।
धर्म बहुत कमजोर हुआ है लकवे का डर सता रहा वह नाचती रही बिलखते हुएअपने डर धरती के इस छोर से डरे उस छोर तकसमुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए हम चलो डरायें मस्जिद को खेत तकसब भरे से उसके नाच की धमक सेगंगाजली उठायें झूठी सरयू को गंदा कर दें संग राम को फिर ले डूबें और डूबायें मस्जिद को सब में समाया था उसका बिलखता हुआ गाना ।
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