Changes

जवानी / माखनलाल चतुर्वेदी

139 bytes removed, 08:14, 14 अप्रैल 2009
कवि: [[माखनलाल चतुर्वेदी]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=माखनलाल चतुर्वेदी]] |संग्रह= ~*~*~*~*~*~*~*~ }}<poem>
प्राण अन्तर में लिये, पागल जवानी !
 
कौन कहता है कि तू
 
विधवा हुई, खो आज पानी?
 
 
चल रहीं घड़ियाँ,
 
चले नभ के सितारे,
 
चल रहीं नदियाँ,
 
चले हिम-खंड प्यारे;
 
चल रही है साँस,
 
फिर तू ठहर जाये?
 
दो सदी पीछे कि
 
तेरी लहर जाये?
 
 
पहन ले नर-मुंड-माला,
 
उठ, स्वमुंड सुमेस्र् कर ले;
 
भूमि-सा तू पहन बाना आज धानी
 
प्राण तेरे साथ हैं, उठ री जवानी!
 
 
द्वार बलि का खोल
 
चल, भूडोल कर दें,
 
एक हिम-गिरि एक सिर
 
का मोल कर दें
 
मसल कर, अपने
 
इरादों-सी, उठा कर,
 
दो हथेली हैं कि
 
पृथ्वी गोल कर दें?
 
रक्त है? या है नसों में क्षुद्र पानी!
 
जाँच कर, तू सीस दे-देकर जवानी?
 
वह कली के गर्भ से, फल-
 
रूप में, अरमान आया!
 
देख तो मीठा इरादा, किस
 
तरह, सिर तान आया!
 
डालियों ने भूमि स्र्ख लटका
 
दिये फल, देख आली !
 
मस्तकों को दे रही
 
संकेत कैसे, वृक्ष-डाली !
 
फल दिये? या सिर दिये?त तस्र् की कहानी-
 
गूँथकर युग में, बताती चल जवानी !
 
 
श्वान के सिर हो-
 
चरण तो चाटता है!
 
भोंक ले-क्या सिंह
 
को वह डाँटता है?
 
रोटियाँ खायीं कि
 
साहस खा चुका है,
 
प्राणि हो, पर प्राण से
 
वह जा चुका है।
 
तुम न खोलो ग्राम-सिंहों मे भवानी !
 
विश्व की अभिमन मस्तानी जवानी !
 
 
ये न मग हैं, तव
 
चरण की रखियाँ हैं,
 
बलि दिशा की अमर
 
देखा-देखियाँ हैं।
 
विश्व पर, पद से लिखे
 
कृति लेख हैं ये,
 
धरा तीर्थों की दिशा
 
की मेख हैं ये।
 
प्राण-रेखा खींच दे, उठ बोल रानी,
 
री मरण के मोल की चढ़ती जवानी।
 
 
टूटता-जुड़ता समय
 
`भूगोल' आया,
 
गोद में मणियाँ समेट
 
खगोल आया,
 
क्या जले बारूद?-
 
हिम के प्राण पाये!
 
क्या मिला? जो प्रलय
 
के सपने न आये।
 
धरा?- यह तरबूज
 
है दो फाँक कर दे,
 
चढ़ा दे स्वातन्त्रय-प्रभू पर अमर पानी।
 
विश्व माने-तू जवानी है, जवानी !
 
लाल चेहरा है नहीं-
 
फिर लाल किसके?
 
लाल खून नहीं?
 
अरे, कंकाल किसके?
 
प्रेरणा सोयी कि
 
आटा-दाल किसके?
 
सिर न चढ़ पाया
 
कि छाया-माल किसके?
 
वेद की वाणी कि हो आकाश-वाणी,
 
 
धूल है जो जग नहीं पायी जवानी।
 
 
विश्व है असि का?-
 
नहीं संकल्प का है;
 
हर प्रलय का कोण
 
काया-कल्प का है;
 
फूल गिरते, शूल
 
शिर ऊँचा लिये हैं;
 
रसों के अभिमान
 
को नीरस किये हैं।
 
खून हो जाये न तेरा देख, पानी,
 
मर का त्यौहार, जीवन की जवानी।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,693
edits