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गुजर गया एक और दिन,
रोज की तरह ।
 
 
 
चुगली औ’ कोरी तारीफ़,
 
बस यही किया ।
 
जोड़े हैं काफिये-रदीफ़
 
कुछ नहीं किया ।
 
तौबा कर आज फिर हुई,
 
झूठ से सुलह ।
 
 
 
याद रहा महज नून-तेल,
 
और कुछ नहीं
 
अफसर के सामने दलेल,
 
नित्य क्रम यही
 
शब्द बचे, अर्थ खो गये,
 
ज्यों मिलन-विरह ।
 
 
 
रह गया न कोई अहसास
 
क्या बुरा-भला
 
छाँछ पर न कोई विश्वास
 
दूध का जला
 
 
कोल्हू की परिधि फाइलें
 
मेज की सतह ।