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{{KKRachna
|रचनाकार=इब्बार रब्बी
|संग्रह=लोगबाग / इब्बार रब्बी
}}
<poem>
मेरी बेटी बनती है
मैडम
बच्चों को डाँटती जो दीवार है
फूटे बरसाती मेज़ कुर्सी पलंग पर
नाक पर रख चश्मा सरकाती
(जो वहाँ नहीं है)
मोहन
कुमार
शैलेश
सुप्रिया
कनक
को डाँटती
ख़ामोश रहो
चीख़ती
डपटती
कमरे में चक्कर लगाती है
हाथ पीछे बांधे
अकड़ कर
फ़्राक के कोने को
साड़ी की तरह सम्हालती
कापियाँ जाँचती
वेरी पुअर
गुड
कभी वर्क हार्ड
के फूल बरसाती
टेढ़े-मेढ़े साइन बनाती
मेरी बेटी बनती वह तरसती है<br>मैडम<br>बच्चों माँ पिता और मास्टरनी बनने को डांटती जो दीवार है<br>फूटे बरसाती मेज़ कुर्सी पलंग पर<br>और मैं बच्चा बनना चाहता हूँनाक पर रख चश्मा सरकाती<br>(जो वहां नहीं है)<br>मोहन<br>कुमार<br>शैलेश<br>सुप्रिया<br>कनक<br>को डांटती<br>ख़ामोश रहो<br>चीखती<br>डपटती<br>कमरे बेटी की गोद में चक्कर लगाती है<br>हाथ पीछे बांधे<br>अकड़ कर<br>फ़्राक के कोने को<br>साड़ी की तरह सम्हालती<br>कापियां जांचती<br>वेरी पुअर<br>गुड<br>कभी वर्क हार्ड<br>के फूल बरसाती<br>गुड्डे-साटेढ़े मेढ़े साइन बनाती<br><br>जहाँ कोई मास्टर न हो!
वह तरसती है<br>रचनाकाल : 21.08.1983मां पिता और मास्टरनी बनने को<br/Poem>और मैं बच्चा बनना चाहता हूं<br>बेटी की गोद में गुड्डे सा<br>जहां कोई मास्टर न हो!
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