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'''शीर्षक: '''अंकुरकविजन खोज रहे अमराई<br> '''रचनाकार:''' [[इब्बार रब्बीअष्टभुजा शुक्ल]]
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अंकुर जब सिर उठाता है ज़मीन की छत फोड़ गिराता है वह जब अंधेरे में अंगड़ाता हैकविजन खोज रहे अमराई । जनता मरे , मिटे या डूबे इनने ख्याति कमाई ॥ मिट्टी शब्दों का कलेजा फट जाता हैमाठा मथ-मथकर कविता को खट्टाते । और प्रशंसा के मक्खन कवि चाट-चाट रह जाते ॥ हरी छतरियों की तन जाती है कतारसोख रहीं गहरी मुषकैलें, डांड़ हो रहा पानी । छापामारों गेहूं के दस्ते सज जाते पौधे मुरझाते , हैंअधबीच जवानी ॥ पाँत बचा-खुचा भी चर लेते हैं , नीलगाय के पाँतझुंड । ऊपर से हगनी-मुतनी में , खेत बन रहे कुंड ॥ नई हो या पुरानीकुहरे में रोता है सूरज केवल आंसू-आंसू । कविजन उसे रक्त कह-कहकर लिखते कविता धांसू ॥ वह हर ज़मीन काटता बाली सरक रही सपने में , हैबंहोर के नीचे । लगे गुदगुदी मानो हमने रति की चोली फींचे ॥ हरा जागो तो सिर हिलाता हैधुन पछताओ , हाय-हाय कर चीखो । नन्हा धड़ तानता है अंकुर आशा का रंग जमाता है।अष्टभुजा पद क्यों करते हो कविता करना सीखो ॥
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