कवि: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=रामधारी सिंह "'दिनकर"]]'[[Category:कविताएँ]][[Category:|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "'दिनकर"]]'~*~*~*~*~*~*~*~}}
'आह, बुद्धि कहती कि ठीक था, जो कुछ किया, परन्तु हृदय,
भीतर किसी अश्रु-गंगा में मुझे बोर नहलाते हैं।
फिरा न लूँ अभिशाप, पिघलकर वाणी नहीं उलट जाये।'
और उन्हें जी-भर निहार कर मंद-मंद प्रस्थान किया।
किसी गिरि-श्रृंगा से छूटा हुआ-सा,