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एशिया जाग उठा
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यह एशिया की ज़मीं, तमद्दुन की कोख, तहज़ीब का वतन है
यहीं पे सूरज ने आँख खोली
अज़ीम इतनी अज़ीम जितनी हिमालया की बलन्दियाँ हैं
हसीन इतनी हसीन जितनी हसीं अजन्ता की अप्सराएँ
यह अपनी फ़ैयाज़ियों१ फ़ैयाज़ियों<ref>दानशीलता</ref> में दरयाए-नील-ओ-गंगा से कम नहीं है
यह गोद बच्चों से और फूलों से और फलों से भरी हुई है।
हमारी तारीख़ ताज और सीकरी से अहरामे-मिस्र तक है
हमें रिवायात के ख़्ज़ानों से बाविलो-नीनवा मिले हैं
फ़साहतों२ फ़साहतों<ref>औचित्य</ref> ने हमारे बचपन के होंट चूमेबलाग़तों३ बलाग़तों<ref>प्रसंगानुकूल बात</ref> ने बडी़ हसीं लोरियाँ सुनायीं
ज़बान खोली तो वेद, इंजील और क़ुर्‌आन बन के बोले
हमारी तख़ईल४ तख़ईल<ref>कल्पनाशक्ति</ref> आसमानों की उस बलन्दी को छू चुकी है
जहाँ से फ़िरदौसी और सा’दी
निज़ामी, ख़ैयाम और हाफ़िज़ के चाँद सूरज चमक रहे हैं
गुज़र चुके हैं हमारे सर से
हज़ारों सालों के तुन्द५ तुन्द<ref>प्रचण्ड</ref> तूफ़ां
मुसीबतों की हवाएँ, जुल्मो-सितम की आँधी
मगर यह अनमोल खा़क फिर भी हसीन फिर भी जवाँ रही है
हमारी आँखों के आगे कितनी सियाह सदियों की साँस टूटी
न जाने कितने बलन्द परचम
हमारी नज़रों के सामने सरनिगूँ६ सरनिगूँ<ref>सर झुकाए हुए</ref> हुए हैं
उलटते देखे हैं ताज हमने
हमारे सीने से जाने कितने रथों के पहिये गुज़र चुके हैं
मगर हम इस भूक, क़त्ल, इफ़लास७ इफ़लास<ref>कंगाली</ref> के अंधेरेहवादिसे-रोज़गार८ रोज़गार<ref>रोज़गार की समस्याएँ</ref> के तुन्दो-तेज़९ तेज़<ref>तेज़ लपकते हुए और भड़कते हुए</ref> शो’लों में अनगिनत जन्म ले चुके हैं
हम अपनी धरती की कोख में बीज की तरह दफ़्न हो गये थे
मगर नयी सुबह की हवा में
ज़मीन-सदियों पुराने हाथों में अपने लकडी़ के हल सँभाले
गरीब मज़दूर, जलती आँखें
उचाट नींदों की तल्ख़१० तल्ख़<ref>कड़वी, नागवार</ref> रातें
थके हुए हाथ, भाप का ज़ोर, गर्म फ़ौलाद की रवानी
जहाज़, मल्लाह, गीत, तूफ़ाँ
बलन्द बाँसों के झुण्ड हँसती धनक के नीचे
घनेरे जंगल
पठार, मैदान, रेगज़ारों११ रेगज़ारों<ref>मरुस्थल</ref> के गर्म सीने
गुफ़ाएँ जन्नत की तरह ठण्डी
समन्दरों में कँवल के फूलों की तरह रखे हुए जज़ीरे
हिमालया के गले में गंगा की और जमुना की शोख़ बाँहें
पहाड़ की आँधियों के माथों पे बर्फ़ के नीलगूँ दुपट्टे
बलन्दियों पर ख़फ़ीफ़१२ख़फ़ीफ़-सा इर्तिआ़श१३ <ref>थोडा</ref> इर्तिआ़श<ref>कम्पन</ref> हलकी-सी रागिनी का
यह एशिया है, जवान, शादाब और धनवान एशिया है
वो सर जो तकियों की नर्म लज़्ज़त से बेख़बर हैं
वो पेट जो भूक ही को भोजन समझ रहे हैं
ये नादिरे-रोज़गार१४ रोज़गार<ref>दुनिया भर में सब से श्रेष्ठ</ref> इंसाँ
तुम्हें फ़क़त एशिया की जन्नत ही में मिलेंगे
जो तीन सौ साल के ‘तमद्दुन’ के बाद भी ‘जानवर’रहे हैं
हर-एक कोना भरा हुआ है
कहीं पे मेहराबे-फ़त्‌ह बाँधी
कहीं रुऊ़नत१५ रुऊ़नत<ref>स्वच्छंदता, उद्दण्डता</ref> की लाट उठाई
कहीं पे काँसे के घोडे़ ढाले
कहीं पे पत्थर के बुत बनाए
मगर यह ‘तहज़ीब और तमद्दुन’ की य़ादगारें कहीं नहीं हैं
बुलाओ अपने मुसव्विरों१६ मुसव्विरों<ref>चित्रकारों</ref> और बुतगरों को
कहो कि इन दर्दनाक चेहरों से एक-इक म्यूज़ियम सजा दें
तुम्हारे कारे-अज़ीम को जाविदाँ१७ जाविदाँ<ref>हमेशा रहनेवाला, शाश्वत</ref> बना दें
अब एशिया की ज़मीं पे हाथों का एक जंगल उगा हुआ है
यह संगे-मरमर की, संगे-अस्वद की मुट्ठियाँ हैं
कँवल की कलियाँ, कपास के फूल, बम के और नारियल के गोले
कहाँ है ऐ नौ-अरूसे-सुब्‌हे-बहार१८ बहार<ref>वसन्त की सुबह रूपी नई दुल्हन</ref> आजा
हमारी बेताब मुट्ठियों में
शफ़क़ का सिन्दूर
सिरनों की सुर्ख़ अफ़साँ भरी हुई है।
१.दानशीलता २.औचित्य ३.प्रसंगानुकूल बात ४.कल्पनाशक्ति ५.प्रचण्ड ६.सर झुकाए हुए ७.कंगाली ८.रोज़गार की समस्याएँ ९.तेज़ लपकते हुए और भड़कते हुए १०.कड़वी, नागवार ११.मरुस्थल १२थोडा १३.कम्पन १४.दुनिया भर में सब से श्रेष्ठ १५.स्वच्छंदता, उद्दण्डता १६.चित्रकारों १७.हमेशा रहनेवाला, शाश्वत १८.वसन्त की सुबह रूपी नई दुल्हन।{{KKMeaning}}</poem>