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सिलहार / राम विलास शर्मा

827 bytes removed, 08:47, 4 सितम्बर 2006
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वर्षा से धुल कर निखर उठा नीला-नीलापूरी हुई कटाई, अब खलिहान में,
फिर हरे-हरे खेतों पर छाया आसमानपीपल के नीचे है राशि सुची हुई,
उजली कुँआर की धूप अकेली पड़ी हार में,दानों-भरी पकी बालों वाले बड़े
लौटे इस बेला सब अपने घर किसान पूलों पर पूलों के लगे अरम्भ हैं
पागुर करती छाहीं में, कुछ गम्भीर अधबिगही-खुली आँखों सेबरहे दीख पड़े अब खेत में,
बैठी गायें करती विचार,छोटे-छोटे ठूँठ-ठूँठ ही रह गये ।
सूनेपन का मधु-गीत आम की डाली अभी दुपहरी मेंपर,जब आकाश को
गाती जातीं भिन्न कर ममाखियाँ लगातार ।चाँदी का सा पात किये, है तप रहा,
भरे रहे मकाई ज्वार बाजरे के दानेछोटा-सा सूरज सिर पर बैसाख का,
चुगती चिड़ियाँ पेड़ों पर बैठीं झूलकाले धब्बों-झूल,से बिखरे वे खेत में
पीले कनेर के फूल सुनहले फूले पीलेफटे अँगोछों में, बच्चे भी साथ ले,
लाल-लाल झाड़ी कनेर कीध्यान लगा सीला चमार हैं बीनते, लाल फूल ।
बिकसी फूटें, पकती कचेलियाँ बेलों मेंखेत कटाई की मजदूरी,इन्हीं ने
ढो ले आती ठंडी बयार सोंधी सुगन्ध, अन्तस्तल में फिर पैठ खोलती मनोभवन के, वर्ष-वर्ष से सुधि के भूले द्वार बन्द जोता बोया सींचा भी था खेत को । तब वर्षों के उस पार दीखता, खेल रहा वह, खेल-खेल में मिटा चुका है जिसे काल, बीते वर्षों का मैं, जिसको है ढँके हुए गाढ़े वर्षों की छायाओं का तन्तु-जाल । देखती उसे तब अपलक आँखें, रह जाती