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ये क्या के रोज़ एक सा ग़म एक सी उम्मीद <br>
इस रन्जरंज-ए-बेख़ुमार की अब इन्तहा इंतहा भी हो <br><br>
ये क्या के एक तौर से गुज़रे तमाम उम्र <br>
लेकिन किसे सुनाऊँ कोई हमनवा भी हो <br><br>
फ़ुर्सत में सुन शगुफ़्तगी-ए-ग़ुन्चा ग़ुंचा की सदा <br>
ये वो सुख़न नहीं जो किसी ने कहा भी हो <br><br>
बज़्म-ए-सुख़न भी हो सुख़न-ए-गर्म के लिये <br>
ताऊस बोलता हो तो जन्गल जंगल हरा भी हो <br><br>
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