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मुसलसल बेकली दिल को रही है / नासिर काज़मी
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11:22, 7 जून 2009
मगर जीने की सूरत तो रही है<br><br>
मैं क्यूँ फिरता हूँ तन्हा मारा
-
मारा<br>
ये बस्ती चैन से क्यों सो रही है<br><br>
ख़िज़ाँ पत्तों में छुप के रो रही है<br><br>
हमरे
हमारे
घर की दीवारों पे "नासिर"<br>
उदासी बाल खोले सो रही है<br><br>
हेमंत जोशी
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