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|रचनाकार=मृत्युंजय प्रभाकर
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<poem>
छोटी-छोटी बातें याद रह जाती हैं
 
जबकि भूल जाते हैं हम
 
बड़े से बड़ा सच
 
जिनका नहीं है
 
मिट्टी जितना भी मोल
 
या दखल
 
आपके वर्तमान में
 
वह याद भी कितना सालती है
 
कई बार
 
याद है अभी भी
 गाली गली में बीता बचपन 
और खाई हुई मार
 
पिता, भाई या दोस्त के हाथों
 मां माँ और झाड़ू की स्मृतियां आज भी दर्ज दर्ज़ है 
मेरी पसलियों में
 
कितना दर्द सहेजा होगा
 
मेरी आत्मा ने
 
इस सत्य के साक्षात्कार से
 कि मां माँ की झाड़ू  
पीटने के काम भी आती है
 
यादों में
 असंख्य संकरी गलियां सँकरी गलियाँ
निकलती हैं
 
गन्दी बजबजाती नालियों
 
और उपलों की दीवारों के बीच
 
गली के कोने पर
 
दो माह के लिए खिला गुलाब भी
 
अक्सर कचोट जाता है मेरा मन
 
अनगिन दबी इच्छाओं
 
व विकलांग सपनों की हूक
 अभी भी ताजी ताज़ी है  
एक अधूरे राष्ट्रनिर्माण परियोजना की
 अधूरे अधूरी संतान हैं हम 
जिन्हें कुछ भी पूरा नहीं हासिल
 
यह सत्य भी उतना नहीं सालता
 
जितनी की बचपन में भींगी यादें।
 
मृत्युंजय प्रभाकर
'''रचनाकाल : 12.07.08</Poem>
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