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{{KKRachna
|रचनाकार=जगदीश व्योम
}}

जाने क्या हो गया, कि<br />
सूरज इतना लाल हुआ।<br />
प्यासी हवा हाँफती<br />
फिर-फिर पानी खोज रही<br />
सूखे कण्ठ-कोकिला, मीठी<br />
बानी खोज रही<br />
नीम द्वार का, छाया खोजे<br />
पीपल गाछ तलाशे<br />
नदी खोजती धार<br />
कूल कब से बैठे हैं प्यासे<br />
पानी-पानी रटे<br />
रात-दिन, ऐसा ताल हुआ।<br />
जाने क्या हो गया, कि<br />
सूरज इतना लाल हुआ।।<br />
सूने-सूने राह, हाट, वन<br />
सब कुछ सूना-सूना<br />
बढ़ता जाता और दिनो-दिन<br />
तेज धूप का दूना<br />
धरती व्याकुल, अम्बर व्याकुल<br />
व्याकुल ताल-तलैया<br />
पनघट, कुँआ, बावड़ी व्याकुल<br />
व्याकुल बछड़ा गैया<br />
अब तो आस तुझी से बादल

क्यों कंगाल हुआ।

जाने क्या हो गया, कि

सूरज इतना लाल हुआ।।