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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''बाबू जीसमाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई <br>&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[आलोक श्रीवास्तव-१|आलोक श्रीवास्तवगोरख पाण्डेय]]
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समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
घर की बुनियादें दीवारें बामोंसमाजवाद उनके धीरे-दर थे बाबू जीसबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी धीरे आई
तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न थाअच्छे ख़ासे ऊँचे पूरे क़द्दावर थे बाबू जीहाथी से आई
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर हैअम्मा जी की सारी सजधज सब ज़ेवर थे बाबू जीघोड़ा से आई
भीतर से ख़ालिस जज़बाती और ऊपर से ठेठ पिताअलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जीअँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजननोटवा से आई मेरे मन बोटवा से आई  बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...  गाँधी से आई  आँधी से आई  टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...  काँगरेस से आई  जनता से आई  झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...  डालर से आई  रूबल से आई  देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...  वादा से आई  लबादा से आई  जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...  लाठी से आई  गोली से आई  लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...  महंगी ले आई  गरीबी ले आई  केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...  छोटका का आधा साहस आधा डर थे बाबू जीछोटहन  बड़का का बड़हन  बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...  परसों ले आई  बरसों ले आई  हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...  धीरे-धीरे आई  चुपे-चुपे आई  अँखियन पर परदा लगाई  समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई ।  '''(रचनाकाल :1978)
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