तुम धर्मराज समीप रथ को शीघ्रता से ले चलो,<br>
भगवान! मेरे शत्रुओं की सब दुराशाएँ डालो??"<br><br>
बहु भाँति तब सर्वग्य हरि ने शीघ्र समझाया उन्हें,<br>
सुनकर मधुर उनके वचन संतोष कुछ आया उन्हें|<br>
पर स्वजन चिंता-रज्जु बंधन है कदापि न टूटता,<br>
जो भाव जम जाता हृदय में वह न सहसा छूटता||<br>
करते हुए निज चित्त में नाना विचार नए-नए,<br>
निज भाइयों के पास आतुर आर्त अर्जुन आ गए|<br>
तप-तप्त तरुओं के सदृश तब देख कर तापित उन्हें,<br>
आकुल हुए वे और भी कर कुशल विज्ञापित उन्हें||<br>
अवलोकते ही हरि-सहित अपने समक्ष उन्हें खड़े,<br>
फिर धर्मराज विषाद से विचलित उसी क्षण हो पड़े|<br>
वे यत्न से रोके हुए शोकाश्रु फिर गिरने लगे,<br>
फिर दुःख के वे दृश्य उनकी दृष्टि में फिरने लगे||<br>
कहते हुए कारुण्य-वाणी दीन हो उस काल में,<br>
देखे गए इस भाँति वे जलते हुए दुःख ज्वाल में|<br>
व्याकुल हुए खग-वृन्द के चीत्कार से पूरित सभी -<br>
दावाग्नि-कवलित वृक्ष ज्यों देता दिखाई है कभी||<br>
"हे हे जनार्दन! आपने यह क्या दिखाया है हमें?<br>
हे देव! किस दुर्भाग्य से यह दुःख आया हैं हमें?<br>
हा आपके रहते हुए भी आज यह क्या हो गया?<br>
अभिमन्यु रुपी रत्न जो सहसा हमारा खो गया||<br>
निज राज्य लेने से हमें हे तात! अब क्या काम है?<br>
होता अहो! फिर व्यर्थ ही क्यों यह महा-संग्राम है!<br>
क्या यह हमारी हानि भारी, राज्य से मिट जाएगी?<br>
त्रैलोक्य की भी सम्पदा उस रत्ना को क्या पाएगी?<br><br>