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|रचनाकार=असग़र गोण्डवी
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<poem>
 
सारे आलम में किया तुझ को तलाश।
 
तू ही बतला है रगेगरदन कहाँ ?
 
खूब था सहरा, पर ऐ ज़ौके़-जुनूँ।
 
फाड़ने को नित नये दामन कहाँ ?
 
 
वो लज़्ज़ते-सितम का जो ख़ूगर समझ गये।
 
अब ज़ुल्म मुझपै है कि सितम गाह-गाह का॥
 
शीशे में मौजे-मय को यह क्या देखते हैं आप।
 
इसमें जवाब है उसी बर्के़- निगाह का॥
 
 
मेरी वहशत पै बहस-आराइयाँ अच्छी नहीं नासेह!
 
बहुत-से बाँध रक्खे हैं गरेबाँ मैंने दामन में॥
 
इलाही कौन समझे मेरी आशुफ़्ता मिज़ाजी को।
 
क़फ़स में चैन आता है, न राहत है नशेमन में॥
<poem>
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