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बाढ़ / ओमप्रकाश सारस्वत

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| संग्रह=शब्दों के संपुट में / ओमप्रकाश सारस्वत
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<poem>मुझे मुसोयी हुई बस्ती पर जबीहिन्दुस्तान अचानक आक्रमण होता है बाढ़ काशहर के तमाम अखबार तभीखबरों कोविध्वंस के अभियान की तरहप्रचारित करते हुएप्रलयकाल के अन्दरद्र्ष्टा की तरहगोरखालैंड दे दोसत्य को शास्त्रों की शैली में कहते हैं
मुझे हिन्दुस्तान जो सृष्टि का कोमलता पदार्थ है जगती का वही क्रूरतम यथार्थ हैकाल जब चाहे किसी के अन्दर किए-कराए पर खालीस्तान दे दोपानी फेर सकता है
मुझे हिन्दुस्तान के अन्दर
पाकिस्तान दे दो
मुझे हिन्दुस्तान के अन्दर वैसे सोना खेलते नगरोंरूस की बोली और मोती पहनी संस्कृतियों को अमेरिका की वॉयस कैसे उजाड़ती है बाढ़ और चीन यह,या तो कोई प्राचीन खण्डहरया धरती की ज़बान दे दोपरतों में सोईकोई पुरातात्विक गाथा ही बता सकती है
क्योंकि मैं हिन्दुस्तान काकिंतु,चिंतक कहते हैंनागरिक हूँबाढ़, सदा खुद ही नहीं आतीयहाँ हर नागरिक को कुछ वह बुलाई भी माँगने का अधिकार जाती है(केवल राष्ट्र प्रेम और नेताओं) जब हम किसी भी चीज़ की गद्दियों अति को छोड़कररोक नहीं पातेतब उसकी गति ही प्रलय बनकरनिगल जाती हैसारहीन व्यक्तित्व वाले किनारों को गिरते वृक्षों के बेमतलब अवरोधों के बावजूद
फिर मैं और कभी यही बाढ़ खाली हमारे विवेक के बोधि वृक्ष को ढकारहमारे तमाम विश्वसनीय सम्बंधों को कीचड़ करकेबाड़वाग्नि की तरह सत् के सिन्धु कोघी के समुद्र की तरह पी जाती है गटागट हम बहुत बारबाढ़ को उतर जाने वाला जल समझ करबालू पर किश्ती की तरह बेखटके बैठ जाते हैं और जब बह जाते हैं शायद त्अब सोचते हैं किबालू का आधार आखिर किश्ती नहीं हो सकता था मेरे दादा जी कहते थे किबाढ़ सदा 'स्तान' मत्स्यन्याय, की चरम परिणति का परिणाम होती है मेरे पिता जी सुनाते हैं कि त्रेता और द्वापर में जब-जब भी बाढ़ का प्रसंग आया हैशम्बूक ने अपनी द्विजात्वप्राप्ति का मूल्योपहारसिर देकर चुकाया हैऔर एकलव्य ने धनुषप्रवीणता की दक्षिणा हेतुअंगूठे के सिर क्ई तरह काटकरपक्षपाती गुरू के चरणों पर चढ़ाया है उनका मत है कि त्रेता और द्वापर मेंश्री राम और श्री कृष्ण के राज को अविवेक और पक्षपात की बाढ़ ने ही निगला थासरयू और यमुना तो माँग तब से अब तलक उन्हीं घाटों के मध्य बह रही हैं।मित्र! मैं यहाँ कई बरसों से सुन रहा हूँकि इस बरस बाढ़ को ईख के किसी खेत में घुसने नहीं दिया जाएगा किसी पकी बाली को खुसने नहीं दिया जाएगासर्वत्र मंगल ही मंगल होगासारे पोखरों तालाबों का जलगंगाजल होगा पर उदघोषणा चल ही रही होती है किबाढ़ आ जाती है और वह तत्काल बहा के ले जाती है हमारे सारे गन्नों की मिठाअस हमारे सारे पन्नों के स्वप्न  तब मैं कौनलाऊडस्वीकर तथा रेडियो परसुनता हूँ यथाभ्यासे किबाढ़ इस साल भी मानी नहीं उसने किसी की कोई कीमत जानी नहींवह समस्त जननायकों केरात-सा दिन समझाने पर भीपूरा हिन्दुस्तान माँ रहा हूँ।इस बार भी जाती हई दे गई चेतावनी कि तुम कितने ही सुनाओ मुझे येरामायण में सिन्धु क्ओ बाँधने के लटकेपर जब तलक तुम मेरे मार्ग में विवेक के आल्पस नहीं खड़ा कर दोगे;अपनी सोच को हिमालय से बड़ा नहीं कर लोगेतब तलक मैं इसी तरह आती रहूँगी बेरोक-टोकऔर ढाती रहूँगी तुम्हारे बांधनुओं को मिट्टी के घरौंदों की तरह, शतबार ताकि हो सकता है एक दिन तुम गीता को पूजा घर में पढ़ना छोड़ जीवन के रणांङण में'युद्धाय कृत निश्चय:' होकरविगतश्रम हो कर, पढ़ने लग जाओ और स्वार्थ के गृहद्वेषी कौरवों से सतत् लड़ने लग जाओ
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