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और बात / ओमप्रकाश सारस्वत

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<poem>जहाँ आदमी
आदमी के खिलाफ
इस्तेमाल होने लग जाए
जहाँ मानव
पशुता ढोने लग जाए

वहाँ आदमी को आदमी
और् पशु को पशु कहना भी
बेमानी है

यह शब्दों को
शब्दों के मत्थे भर मारना है
अर्थहीन आत्मा की देह पर

आज जबकि शब्द
ब्रह्म होने को तैयार नहीं
तब मैं
अर्थ को कैसे रोक सकता हूँ

जबकि मैं
आपको भी तो टोक नहीं सकता कि
श्वानों के संग
बिस्तर पर खेलना और बात है
और मनुष्यों के साथ
धरती पर सोना और बात
</poem>
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