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अलाव / सरोज परमार

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|रचनाकार=सरोज परमार
|संग्रह= घर सुख और आदमी / सरोज परमार
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[[Category:कविता]]
<poem>अलाव जल रहा है
ऊन अटेरती मेरी बीवी की आँखों में
जल रहे हैं प्रश्न !
मकान का किराया?
किराने वाले के तकाज़े ?
थिगली लगी दोती में उभरता पेट
पपड़ी जमें होंठ
नाक की बढ़ती झाँई देखकर
अनदेखी कर देखता हूँ
अलाव जल रहा है।
ए फॉर एपल
बी फॉर बुयाय
रटते-रटते बिट्टो की बह आई नाक
मरगिल्ले लल्लू की
पब्लिक स्कूल जाने की ज़िद
गठिया के दर्द सी
हूल गई छाती
अलाब जल चुका है
मेरा मन सुलग रहा है
उभर आई हैं चन्द लकीरे
बीवी की पेशानी पर ।
बिट्टो की बिट बिट आँखें
लल्लू का आक्रोश
बॉस का आतंक
फटी कहानी पर खिंखिंय़ाता
हरिया
ओर फिर......फिर
एक अद्धा हलक के नीचे उतर जाता है
मैं बुझ चुका हूँ
मगर मेरी बीबी जल रही है।
</poem>
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