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22:10, 21 अगस्त 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सरोज परमार
|संग्रह= घर सुख और आदमी / सरोज परमार
}}
[[Category:कविता]]
<poem>जब से तुम गैरमामूली बनने के सपने देखने लगे हो
कभी कैक्टस बन रहे हो
तो कभी मनीप्लाँट बन रहे हो।
कभी खौलते पानी से खदबदाने लगे हो
तो कभी तवे पर पड़ी बूँद से
बिलबिलाने लगे हो।
चाहों की गिरफ्त में कभी चहकने लगते हो
तो कभी खाली डिब्बे से ठनकने लगते हो।
फन के नाम पर तुम्हारे ज़ेहन में
औरत की रूह को ज़िन्दा रखने के
ख़्याली पुलाव पकने लगे हैं
ग़रीबों का ख़्याल तुम्हें
घड़ियाली आँसू बहाने को मज़बूर करने लगा है
जब से तुम ग़ैरमामुली बनने के सपने देखने
लगे हो
बेहद निरीह लगने लगे हो।
बीमार से दीखने लगे हो
कभी-कभी मन होता है
तुम्हारी महत्वकाँक्षाओं की शल्यचिकित्सा
तुम्हारी ही आँखों के सामने कर दोँ
तुम्हारी सतही बयानबाज़ी
बचकानी हरकतों
ओढ़ी हुई शख्सीयत की
चिन्दी चिन्दी कर दूँ
और तुम्हें एहसास करा दूँ
कि तुम कितने बेहुदे
कितने बोदे
कितने निरर्थक हो।
जानती हूँ।
तुम और भभकोगे
और उछालोगे
कड़कोगे
मेरी अँखुआई एषनाओं को
अपने चमरौंधों से मसलोगे।
तुम रतनारी आँखों के सौदागर
मेरे आँगन को मलबे के ढेर में बदलोगे
कभी कैक्टस से चुभोगे
कभी मनीप्लाँट के लरजोगे।</poem>