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आत्म प्रवंचना / केशव

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<poem>जीने की कोशिश में
आदमी कभी नहीं मरामरा है आदमी हर-रोज़
कछुए की तरह::ख़ुद से
छिपते-छिपते
या अखबारों,पोस्टरों पर
किसी टेबल न्यूज़ की भाँति
:: छपते-छपते
या फोन परदेते हुए अपरिचितों को अपना
:::परिचय
अपनी टाँगों पर चढ़कर
दिन-भर
दुमकटे कुत्ते की मानिंद भटकना
और फिर रात को
पत्नि,प्रेमिका या वेश्या की जाँघों बीच
पिस्टन-समान धँसकरआज़ादी ढूँढना
और कुछ न मिलने पर
बजाये अपने बिस्तर बदलना
क्या इस तरह बचा या आज़ाद
:::हुआ जा सकता है
अकेलेपन की नागफाँस से
पिछले दिन की परछाईंयों
अगले दिन की मृगतृष्णाओं से
अकेलेपन को
तितलियों के पंखों से मढ़कर
गालियाँ देकर स्त्रियों को
झाड़कर सिगरेट की तरह
अपनी परछाईं को
बचाते रहोगे कब-तक खुद को
करते रहोगे कब तक अपने आपसे
:::बलात्कार
और बनते रहोगे दूसरेओं के लिए
:::लाक्षागृह
पौंछते रहोगे समय की रेत से
:::पदचिन्ह

बूढ़ा होना
इतिहास है एक
जो चूसता रहता है
:::जोंक की भांति
धीरे-धीरे
ज़िन्दती को
फिर छिपाने के लिए अपनी नपुंसकता को
क्यों लेते हो आड़ उस विश्वास की
जो तुम्हारी परछाईं की तरह
तुम्हारे साथ कभी नहीं रहा
तुम यह क्यों नहीं जान लेते
कि आज तक तुम बिना परछाईं ही
:::चलते रहे होएक सुबह उठकर
तुम्हें क्यों यह लगता है कि
चली गई है अचानक वह तुम्हें छोड़कर
क्या तुम नहीं खुद चले गये थे
:::अपने को छोड़
इश्तहारों,अखबारों में छपने
घुमक्कड़ आइने में खुद को नंगा देख
तनिक मुस्कान खींच
एक और अँध्रेरे को सूँघने
</poem>
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