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09:59, 22 अगस्त 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=अलगाव / केशव
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{{KKCatKavita}}
<poem>जब-से उड़ने लगा है जहाज़
उड़ गये हैं पँछी
किसी अनजानी दिशा में
जब भी होता है
इंजन का शोर
बरना पड़ा रहता ह्अइ आसमान
::::ठंडे इस्पात के टुकड़े-सा
और हर दृष्य
किसी दुर्घटनाग्रस्त गाड़ी-सा
यूँ तो सूरज भी उगता है
पर दिन भर कुर्सी पर बैठा
:::करता रहता है
फाईलों पर हस्ताक्षर
और साँझ को झुर्रियों भरा
::::चेहरा लिये
आ बैठती ह्अइं पत्नी के माथे की सलवटों में
साँझ बहुत देर तक
किसी धुँधली इबारत-सी
::::खड़ी रहती है
दिन के कटघरे में
फिर ताँबे के काले पड़ गये
::::सिक्के जैसी
चलने से पहले ही
किसी दुकानदार के गल्ले में
गर्क हो जाती हैं
रात भी होती है
जो असल में ही सच होती है
::::सबके लिये
जिसमें परछाईंयाँ रात गये तक
करती रहती हैं एक-दूसरे का पीछा
जैसे भटके हुए चमग़ादड़
बदलते रहते दृष्य
चलते-रहते चित्र
आदमी पाँचवे टायर-सा
:::पड़ा रहता है
फिर से अपनी बारी की प्रतीक्षा में।
</poem>