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शेष. / केशव

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<poem>जब भी तुम आती हो
द्वार पर अचानक दस्तक-सी
चली आती हो
जब जाती हो
सब कुछ समेट ले ज़ाती हो

कुछ तो होता है
प्यार के क्षणों म्रं आखिर
जो अनकहे-सा रहता है शेष
और अलग हो जाने के बाद भी
खिड़की के नीचे बढ़ते पौधे-सा
जीवित रहता है कहीं

आओ
उसकी सामर्थ्य से खुद को बड़ा करें
और छोड़ा था जहाँ से
वहीं से फिर शुरू करें
</poem>
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