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कोहरा,शहर और हम / केशव
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10:45, 22 अगस्त 2009
पद्चाप से
चौंककर
लिपटता
ह्उआ
हुआ
गिर्द
ठहरा हुआ
चिंहुककर
झाड़ियाँ फुदकते
सफेद
सफ़ेद
खरगोश की तरह
रह
गये
गए
एक दूसरे पर झुके
सोये हुए-से
चलते
तुम और मैं
या कोहरे में
मुँदा
मुंदा
शहर
दूर
दूर कहीं
ऊँघता
ऊंघता
हुआ
किसी सपने में
बिना पाँव चलता
न मैं
न तुम
रह
गये
गए
हम
केवल हम
केवल हम
न रुके हुए न बीतते हुए
न
सोये
सोए
न जागते</poem>
अनिल जनविजय
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