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<poem>याद नहीं
कब पकड़ा पहली बार उनका बस्ता
इज़्ज़त मान की खातिर
जब वे चलने लगते
कोई न कोई आगे बढ़ पकड़ ही लेता
कब वह बढ़ा आगे और
सब से आगे ही रहा
अब याद नहीं।

अब सोचता
फैंक दे उनका बस्ता गहरी खाई में
उसका खुद का बस्ता हो
कोई आगे आए और संभाले।

आज ज़रूरत है हर जगह
बस्ता बरदारों की
नेता अभिनेता लेखक आलोचक
सब चाहते हैं
उनका हो एक बस्ता बरदार
उससे ही बनती है इज़्ज़त,रौब दाब।

कई जगह विज्ञापन छपते हैः
चाहिए एक बस्ता बरदार
फुर्तीला और ताकतवर जवान
जो एकदम झपट ले
और उठा कर चले साथ-साथ
भीड़ रोके,पीछे हटाए।

कभी चाहते हैं आज बस्ता बरदार
जो आगे चले। </poem>
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