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|रचनाकार=वीरेंद्र मिश्र }} {{KKCatNavgeet}}<poem>
रुखी यात्राओं पर निकल रहे हम स्वयं-
पुरवाई हमें मत ढकेलो,
हट कर हरियाली से दूर चले जाएंगे-
दूर किसी अनजाने देश में,
जहां जहाँ छूट जाएंगे नीले आकाश कई-
होंगे हम मटमैले वेश में,
मन से तो पूछो, आवेश में न आओ तुम-
दे दो सीमंत गंध
जल-प्रवाह ले लो।
घूम रहे तेज तेज़ समय के पहिए देखो तो-
व्यक्ति और मौसम की बात क्या,
पानी में चली गई वय की यह गेंद तो-
होना जो शेष अभी
वह गुनाह ले लो।
</poem>