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|रचनाकार=वीरेंद्र मिश्र }} {{KKCatNavgeet}}<poem>
पत्र कई आए
पर जिसको आना था
- व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
सहन में फिर उतरा पीला-सा हाशिया
साधों पर पांव पाँव धरे चला गया डाकियाऔर रोजरोज़-जैसामटमैला दिन गुजरागुज़रा
गीत नहीं गाया
- व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
भरे इंतजारों इंतज़ारों से एक और गठरी
रह-रहकर ऊंघ रही है पटेल नगरी
अधलिखी मुखरता
कह ही तो गई वाह!
खूब ख़ूब गुनगुनाया
-व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
खिडकी मैं बैठा जो गीत है पुराना
देख रहा पत्रों का उड उड़ रहा खजानाखज़ाना
पूछ रहा मुझसे
पतझर के पत्तों में
 
कौन है पराया
- व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
 
</poem>
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