{{KKRachna
|रचनाकार=अनामिका
|संग्रह=दूब-धान / अनामिका
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<poem>
किसी सोचते हुए आदमी की
आँखों-सा नम और सुंदर था दिन।
पंडुक बहुत ख़ुश थे
उनके पंखों के रोएँ
उतरते हुए जाड़े की
हल्की-सी सिहरन में
सड़क पर निकल आए थे खटोले।
पिटे हुए दो बच्चे
गले-गले मिल सोए थे एक पर–
दोनों के गाल पर ढलके आए थे
एक-दूसरे के आँसू।
किसी सोचते “औरतें इतना काटती क्यों हैं ?”कूड़े के कैलाश के पारगुड्डी चिपकाती हुई लड़की सेमंझा लगाते हुए आदमी की<br>लड़के ने पूछा–आँखों“जब देखो, काट-सा नम और सुंदर था दिन।<br><br>कूट, छील-छाल, झाड़-झूड़गोभी पर, कपड़ों पर, दीवार परकिसका उतारती हैं गुस्सा?"
पंडुक बहुत ख़ुश थे<br>उनके पंखों हम घर के रोएँ<br>आगे हैं कूड़ा–उतरते हुए जाड़े की<br>फेंकी हुई चीजें भीहल्की-सी सिहरन में<br>खूब फोड़ देती हैं भांडासड़क पर निकल आए थे खटोले।<br>पिटे हुए दो बच्चे<br>गले-गले मिल सोए थे एक पर–<br>दोनों के गाल पर ढलके आए थे<br>एक-दूसरे के आँसू।<br><br>घर की असल हैसियत का !
“औरतें इतना काटती क्यों हैं ?”<br>लड़की ने कुछ जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझीकूड़े के कैलाश के पार<br>गुड्डी चिपकाती हुई लड़की और झट से<br>दौड़ कर, बैठ गई उधरमंझा लगाते जहाँ जुएँ चुन रही थीं सखियाँएक-दूसरे के छितराए हुए लड़के ने पूछा–<br>केशों से“जब देखो, काटनारियल-कूट, छील-छाल, झाड़-झूड़<br>गोभी पर, कपड़ों पर, दीवार पर<br>किसका उतारती हैं गुस्सा?"<br><br>तेल चपचपाकर।
हम घर के आगे हैं कूड़ा–<br>दरअसल–फेंकी हुई चीजें भी<br>जो चुनी जा रही थीं–खूब फोड़ देती हैं भांडा<br>सिर्फ़ जुएँ नहीं थींघर की असल हैसियत का !<br><br>के वे सारे खटराग थेजिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा।
लड़की ने कुछ जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी<br>और झट से दौड़ कर, बैठ गई उधर<br>जहाँ जुएँ चुन रही थीं सखियाँ<br>एक-दूसरे के छितराए हुए केशों से<br>नारियल का तेल चपचपाकर<br>दरअसल–<br>जो चुनी जा रही थीं–<br>सिर्फ़ जुएँ नहीं थीं<br>घर के वे सारे खटराग थे<br>जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा।<br><br> क्या जाने कितनी शताब्दियों से<br>चल रहा है यह सिलसिला<br>और एक आदि स्त्री<br>दूसरी उतनी ही पुरानी सखी के<br>छितराए हुए केशों से<br>चुन रही हैं जुएँ<br>सितारे और चमकुल!<br><br/poem>