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भूत आया / अवतार एनगिल

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|रचनाकार=अवतार एनगिल
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<poem>जब मैं बच्चा था
श्मशान शहर से बाहर हुआ करता था
मैं भूत-चुड़ैल से बहुत डरता था
सुनते ही बात
बरगद के भूत की
दुबक जाता था
दादी की गोद में
पकड़ लेता था कसकर
उसके सूती धोती

गुंथे आटे-सी
गुदगुदी दादी
मुझे अपनी लोई में छिपा लेती
औ' लौट जाता
बरगद का भूत
अपना-सा मुंह लेकर


अब श्मशान शहर के अन्दर है
यहां-वहां,इधर-उधर
दनदनाते घूमते हैं
उजले धुले
थुलथुल प्रेत
इधर रातों में
बिछावनों पर
चुपके से आकर
लेट जाती हैं
चर्बीदार चुड़ैलें

इन दिनों
घर भर में
कोई किसी की नहीं सुनता
हर कोई,हर किसी से
उलझता है
बच्चे कैसेट लगाकर
उसमें लड़ाईयां भरते हैं
सिर्फ सबक याद नहीं करते

बरगद का चालाक भूत
वेश बदलकर
बच्चों के मन में बसने लगा है
कभी-कभी लगता है
वह मेरे कंधों पर चढ़ बैठा है
अब मैं भूत-प्रेत से नहीं डरता

मैं अघोरी तांत्रिक हूं
मैं ही हूं ड्रैकुला
और मैं ही निंजा भी हूं
तुम्हें मुझमें डरना होगा
डरना होगा ।
</poem>
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