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बंधक सुबहें / अजय पाठक

34 bytes removed, 18:10, 15 सितम्बर 2009
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बंधक सुबहें
 
गिरवी अपनी
 
साँझ दुपहरी है ।
 
बड़ी देर तक रात व्यथा से
 
कर सोये संवाद,
 
रोटी की चिंता ने छीना
 
प्रातः का अवसाद,
 
भूख मीत है जिससे
 
अपनी छनती गहरी है ।
 
रक़म सैकड़ा लिया कभी था
 
की उसकी भरपाई,
 
सात महीने किया मज़ूरी
 
तब जाकर हो पाई,
 
कुछ बोलें तो अपने हिस्से
 
कोर्ट कचहरी है ।
 
टूटी मड़ई जिसको अपना
 
घर कह लेते हैं,
 
किसी तरह कुछ ओढ़-बिछाकर
 
हम रह लेते हैं,
 
जीवन जैसे टूटी-फूटी
 
एक मसहरी है ।
 
मालिक लोगों के कहने पर
 
देते रहे अँगूठा,
 
वक़्त पड़ा तो हम ही साबित
 
हो जाते हैं झूठा,
 
निरर्थक है फ़रियाद
 
व्यवस्था अंधी-बहरी है ।
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