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बंधक सुबहें / अजय पाठक
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18:10, 15 सितम्बर 2009
<poem>
बंधक सुबहें
गिरवी अपनी
साँझ दुपहरी है ।
बड़ी देर तक रात व्यथा से
कर सोये संवाद,
रोटी की चिंता ने छीना
प्रातः का अवसाद,
भूख मीत है जिससे
अपनी छनती गहरी है ।
रक़म सैकड़ा लिया कभी था
की उसकी भरपाई,
सात महीने किया मज़ूरी
तब जाकर हो पाई,
कुछ बोलें तो अपने हिस्से
कोर्ट कचहरी है ।
टूटी मड़ई जिसको अपना
घर कह लेते हैं,
किसी तरह कुछ ओढ़-बिछाकर
हम रह लेते हैं,
जीवन जैसे टूटी-फूटी
एक मसहरी है ।
मालिक लोगों के कहने पर
देते रहे अँगूठा,
वक़्त पड़ा तो हम ही साबित
हो जाते हैं झूठा,
निरर्थक है फ़रियाद
व्यवस्था अंधी-बहरी है ।
</poem>
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