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खुली किताब से / माधव कौशिक

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<poem>
खुली किताब से शामो-सहर भी आएंगे
भरी दुपहर भी तारे नज़र भी आएंगे ।

जला के कोई न रक्खे चिराग़ गलियों में
लुटेरे लूटने शायद इधर भी आएंगे ।

अभी तो हाथ ही काटे गए हैं सपनों के
ज़मीं पे टूटकर ख़्वाबों के सर भी आएंगे ।

जो शख़्स देर तक उलझा रहेगा कांटों से
उसी के हाथ में तितली के पर भी आएंगे ।

बस अपनी रूह के ज़ख़्मों को तुम हरा रखना
सफ़र में सैंकड़ों सूखे शजर भी आएंग़े ।

चलो गुनाह के पत्थर ही जेब में रख लें
सुना है राह में शीशे के घर भी आएंग़े ।
</poem>
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