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16:35, 16 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=अंगारों पर नंगे पाँव / माधव कौशिक
}}
<poem>मना करूंगा मगर बार-बार लिक्खेगा
हमारी जीत के बदले में हार लिक्खेगा ।
कहीं नसीब है कांटों को सेज फूलों की
कहीं गुलाब की क़िस्मत में ख़ार लिक्खेगा ।
धधकती आग में बस्ती तो जल गई है
कोई बताए क्या नामा-निगार लिक्खेगा ।
सलीब यूं तो बहुत से उठाए फिरते हैं
मगर मसीह के हिस्से में द्वार लिक्खेगा ।
सिवाय सच के बता और क्या कहा मैंने
ज़माना फिर भी मुझे गुनाहगार लिक्खेगा ।
इसी उम्मीद पर बैठा हुआ है बरसों से
वो अगली नज़्म बड़ी शानदार लिक्खेगा ।
मिलन के शोख़ उजालों को बांटकर सबको
मेरी निगाह में बस इंतज़ार लिक्खेगा ।</poem>