1,654 bytes added,
09:55, 18 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
}}
<poem>
यूँ माना ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी
ख़ुदा को पा गया वायज़ मगर है
ज़रूरत आदमी को आदमी की
बसा-औक्रात<sup>1</sup> दिल से कह गयी है
बहुत कुछ वो निगाहे-मुख़्तसर भी
मिला हूँ मुस्कुरा कर उससे हर बार
मगर आँखों में भी थी कुछ नमी-सी
महब्बत में करें क्या हाल दिल का
ख़ुशी ही काम आती है न ग़म की
भरी महफ़िल में हर इक से बचा कर
तेरी आँखों ने मुझसे बात कर ली
लड़कपन की अदा है जानलेवा
गज़ब ये छोकरी है हाथ-भर की
है कितनी शोख़, तेज़ अय्यामे-गुल<sup>2</sup> पर
चमन में मुस्कुहराहट कर कली की
रक़ीबे-ग़मज़दा<sup>3</sup> अब सब्र कर ले
कभी इससे मेरी भी दोस्ती थी
1- कभी-कभी, 2- बहार के दिन, 3- दुखी प्रतिद्वन्द्वी
</poem>