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11-20 मुक्तक / प्राण शर्मा

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११
शांत, अचंचल, संयमी, धीर हुआ करता है
फक्कड़ मन का औ’ दिलगीर हुआ करता है
मस्ती का धन जितना चाहे ले जा उससे
हर मतवाला मस्त फ़कीर हुआ करता है
१२
किस युग ने ठहराया है मधु को प्रतिबंधित
मधु पीने के कारण कौन हुआ है दंडित
ज्ञानी, ध्यानी, पंडित मुझको दिखलायें तो
किस पुस्तक में लिक्खा है मदिरा को वर्जित
१३
व्यर्थ न अपने नैन तरेरो उपदेशक जी
नफ़रत के मत शूल बिखेरो उपदेशक जी
मदिरा जीवन का हिस्सा है अब दुनिया में
सच्चाई से मुख ना फेरो उपदेशक जी
१४
फूलों सा हँसता है, मेघों सा रोता है
बीज सभी की राहों में मद के बोता है
पत्थर जैसा उसका दिल हो नामुमकिन है
मोम सरीखा मतवाले का दिल होता है
१५
अपना नाता जोड़ अभागे मधुशाला से
पीने का आनंद उठा ले मधुबाला से
प्रतिदिन पीकर एक सुरा का प्याला प्यारे
अपना पिंड छुड़ा ले दुक्खों की ज्वाला से
१६
दीवारों पर धब्बए काले तकते-तकते
कोनों में मकड़ी के जाले तकते-तकते
इक निर्धन मद्यप ने दिल पर पत्थर रखकर
रात गुज़ारी खाली प्याले तकते-तकते
१७
पण्डित जी, तुम चाहे मधु को विष बतलाओ
जितना जी चाहे मधु पर प्रतिबंध लगाओ
इसकी मान – प्रतिष्ठा और बढ़ेगी जग में
लोगों की नज़रों से चाहे इसे गिराओ
१८
कभी-कभी साक़ी हमसे कुछ कतराता है
कभी-कभी साक़ी गुस्सा कुछ दिखलाता है
यूँ तो बड़ा है दिलवाला यह माना हमने
कभी-कभी साक़ी कंजूसी कर जाता है
१९
कभी-कभी खुद ही मन-ज्वाला हर लेता हूँ
मधु से अपना प्याला खुद ही भर लेता हूँ
मैं अधिकार समझकर मदिरा के नाते ही
शिकवा और गिला साक़ी से कर लेता हूँ
२०
निशि का तम हो अथवा हो दिन का उजियाला
मेरा ठोर ठिकाना हो या हो मधुशाला
जब भी दौर शुरू होता है मधु पीने का
आनन-फानन पी जाता हूँ पहला प्याला</poem>
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