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04:19, 19 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=प्राण शर्मा
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<poem>क्यों न घोलें कानों में रस मदभरी पुरवाईयाँ
बज रही हैं घर सजन के सुबह से शहनाईयाँ
छू नहीं पाया अभी आकाश की ऊंचाइयां
ख़ाक छूएगा कोई पाताल की गहराइयां
इतना भी नादाँ किसीको समझिये मत साहिबो
हर किसी में होती हैं थोड़ी-बहुत चतुराइयां
खुद से करके देखिएगा प्यार से बातें कभी
आपको प्यारी लगेंगी आपकी तन्हाइयां
हर घड़ी आँखें बिछाने वाले सबकी राहों में
क्यों न भाएँगी सभी को आपकी पहुनाइयां</poem>