<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
<td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td> '''शीर्षक: '''पास रह के भी बोहत दूर हैं दोस्तनया राष्ट्रगीत<br> '''रचनाकार:''' [[शकेब जलालीश्रीकान्त जोशी ]]</td>
</tr>
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<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
पास रह के भी बोहत दूर हैं दोस्तअपने हालात से मजबूर हैं दोस्त
तर्क-ए-उल्फत भी नहीं कर सकतेसाथ देने से भी माज़ूर हैं दोस्त
गुफ्तगू के लिए उनवां भी नहीं
बात करने पे भी मजबूर हैं दोस्त
यह चिराग अपने लिए रहने देरोटी रोटी रोटीतेरी रातें भी तो बेबड़ी उम्र होती है जिसकी ख़ातिर छोटी-नूर छोटीरोटी रोटी रोटी।जिनके हाथों में झण्डे हैं दोस्तउनकी नीयत खोटीरोटी रोटी रोटी।
सभी पज़मुर्दा अपने घर में रखें करोड़ों बाहर दिखें भिखारीसहसा नहीं समझ में आती ऐसों की मक्कारीउधर करोड़ों जुटा न पाते तन पर एक लंगोटीरोटी रोटी रोटी। शोर बहुत है जन या हरिजन सब मरते हैं महफ़िल उनसेमहाजनियों की छुपी हुक़ूमत में शकेबसब झुलसे-झुलसेचेहरे पर तह बेशरमी की कितनी मोटी-मोटी!रोटी रोटी रोटी। पैसों के बल टिका हुआ है प्रजातंत्र का खंबाबिका हुआ ईश्वर रच सकता यह मनहूस अचंभाजमा रहे हैं बेटा-बेटी, दौलत सत्ता-गोटीरोटी रोटी रोटी। बर्फ़ हिमालय की चोटी की मुझको दिखती कालीकाली का खप्पर ख़ाली है नाच रही दे तालीमैं परेशान देता हूँ, रंजूर वो ले आकर, मेरी बोटी-बोटीरोटी रोटी रोटी।बड़ी उम्र होती है जिसकी ख़ातिर छोटी-छोटीजिनके हाथों में झण्डे हैं दोस्तउनकी नीयत खोटीरोटी रोटी रोटी।
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