लेखक: [[दुष्यंत कुमार]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=दुष्यंत कुमार]]|संग्रह=}}{{KKCatGhazal}}<poem>अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।
अपाहिज व्यथा को सहन अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर रहा हूँदी,<br>तुम्हारी कहन थी, कहन उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।<br><br>
ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं हैवे सम्बन्ध अब तक बहस में टँगे हैं,<br>इसे तोड़ने का जतन जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।<br><br>
अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दीतुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,<br>उजाले में अब ये हवन तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।<br><br>
वे संबंध अब मैं अहसास तक बहस में टँगे हैंभर गया हूँ लबालब,<br>जिन्हें रात-दिन स्मरण तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।<br><br>
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,<br>तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।<br><br> मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,<br>तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।<br><br> समाआलोचको समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,<br>सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।<br><br/poem>