{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=रघुवीर सहाय}}<poem>मेरा एक जीवन है<br />उसमें मेरे प्रिय हैं, मेरे हितैषी हैं, मेरे गुरुजन हैं<br />उसमें कोई मेरा अनन्यतम भी है<br /><br />पर मेरा एक और जीवन है<br />जिसमें मैं अकेला हूँ<br />जिस नगर के गलियारों, फुटपाथ, मैदानों में घूमा हूँ<br />हँसा खेला हूँ<br />उसके अनेक हैं नागर, सेठ, म्युनिस्पलम कमिश्नर, नेता<br />और सैलानी, शतरंजबाज और आवारे<br />पर मैं इस हाहाहूती नगरी में अकेला हूँ।<br /><br />देह पर जो लता सी लिपटी<br />आँखों में जिसनें कामना से निहारा<br />दुख में जो साथ आये<br />अपने वक्त पर जिन्होंने पुकारा<br />जिनके विश्वास पर वचन दिये, पालन किया<br />जिनका अंतरंग हो कर उनके किसी भी क्षण में मैं जिया<br /> <br />वे सब सुहृद है, सर्वत्र हैं, सर्वदा हैं<br />पर मैं अकेला हूँ।<br /><br />सारे संसार में फैल जायेगा एक दिन मेरा संसार<br />सभी मुझे करेंगे-दो चार को छोड़-कभी न कभी प्यार<br />मेरे सृजन, कर्म-कर्तव्य, मेरे आश्वासन, मेरी स्थापनायें<br />और मेरे उपार्जन, दान-व्यय, मेरे उधार<br />एक दिन मेरे जीवन को छा लेंगे- ये मेरे महत्व। <br />डूब जायेगा तंत्रीनाद कवित्त रस में, राग में रंग में<br />मेरा यह ममत्व<br />जिससे मैं जीवित हूँ।<br />मुझ परितप्त को तब आ कर वरेगी मृत्यु - मैं प्रतिकृत हूँ।<br /><br />पर मैं फिर भी जियुँगा<br />इसी नगरी में रहूँगा<br />रूखी रोटी खाउँगा और ठंड़ा पानी पियूँगा<br />क्योंकि मेरा एक और जीवन है और उसमें मैं अकेला हूँ।<br /poem>