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आस्था-2 / राजीव रंजन प्रसाद

2 bytes removed, 13:40, 9 अक्टूबर 2009
हमारे बीच बहुत कुछ टूट गया है
हमारे भीतर बहुत कुछ छूट गया है
कैसे दर्द नें ने तराश कर बुत बना दिया हमेंऔर तनहाई तन्हाई हमसे लिपट करहमारे दिलों की हथेलियाँ मिलानें मिलाने को तत्पर है
पत्थर फिर बोलेंगे
ये कैसी आस्था?
</poem>
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