{{KKRachna
|रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
|संग्रह=अनामिका / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
}}
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<poem>
वह तोड़ती पत्थर,;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
:::वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत तनमन,गुरू गुरु हथौड़ा हाथ,करती बार-बार प्रहार:-सामने तरु-मलिका मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन ,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्राय::प्रायः हुई दुपहर :-::वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा तो मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकारझंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,