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एक दिन / शलभ श्रीराम सिंह

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|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
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पृथ्वी पर जन्मे
 
असंख्य लोगों की तरह
 मिट जाऊँगा जाऊंगा मैं, 
मिट जाएंगी मेरी स्मृतियाँ
 मेरे नाम के शब्द भी हो जाएँगेजाएंगे
एक दूसरे से अलग
 
कोश में अपनी-अपनी जगह पहुँचने की
 
जल्दबाजी में
 
अपने अर्थ समेट लेंगे वे
 
शलभ कहीं होगा
 
कहीं होगा श्रीराम
 
और सिंह कहीं और
 लघुता-मर्यादा और हिस्र हिंस्र पशुता का 
समन्वय समाप्त हो जाएगा एक दिन
 
एक दिन
 
असंख्य लोगों की तरह
मिट जाऊँगा मैं भी।
मिट जाऊँगा मैं भी.  फिर भी रहूँगा रहूंगा मैं 
राख में दबे अंगारे की तरह
 
कहीं न कहीं अदृश्य, अनाम,अपरिचित
 रहूँगा रहूंगा फिर भी-फिर भी मैं</poem>
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