|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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नीले नभ के शतदल पर
वह बैठी शारद-हासिनि,
मृदु करतल पर शशि-मुख धर
नीरव, अनिमिष एकाकिनि।
नीले नभ के शतदल पर<br>वह बैठी शारदस्वप्न-हासिनि,<br>जड़ित नत-चितवन मृदु करतल पर शशिछू लेती अग-मुख धर<br>जग का मन, नीरवश्यामल, अनिमिष एकाकिनि।<br><br>कोमल चल चितवन जो लहराती जग-जीवन!
वह स्वप्न-जड़ित नत-चितवन<br>फूली बेला की वन छू लेती अग-जग का मनजिसमें न नाल,<br>दल, कुड्मल श्यामल, कोमल चल चितवन<br>केवल विकास चिर निर्मल जो लहराती जगजिसमें डूबे दस दिशि-जीवनदल!<br><br>
वह फूली बेला की वन<br>सोई सरित-पुलिन पर जिसमें न नालसाँसों में स्तब्ध समीरण, दल, कुड्मल<br>केवल विकास चिर निर्मल<br>लघु-लघु लहरों में जिसमें डूबे दस दिशिमिलता मृदु-मृदु उर-दलस्पन्दन!<br><br>
अपनी छाया में छिपकर वह सोई सरित-पुलिन खड़ी शिखर पर<br>साँसों में स्तब्ध समीरणसुन्दर,<br>केवल लघुहै नाच रही शत-लघु लहरों में<br>शत छवि मिलता मृदुसागर की लहर-मृदु उर-स्पन्दनलहर पर!<br><br>
अपनी छाया में छिपकर<br>दिन की आभा दुलहिन बन वह खड़ी शिखर आई निशि-निभूत शयन पर सुन्दर,<br>है नाच रही शत-शत वह छवि<br>सागर की लहरछुई-लहर पर!<br><br>मुई-सी मृदु मधुर लाज से मर-मर
दिन की आभा दुलहिन बन<br>आई निशि-निभूत शयन पर<br>जग के अस्फुट स्वप्नों का वह छवि की छुई-मुई-सी<br>हार गूँथती प्रतिपल, मृदु मधुर लाज चिर सजल, सजल करुणा से मर-मर<br><br>उसके ओसों का अंचल!
जग वह मृदु मुकुलों के अस्फुट स्वप्नों का<br>मुख में वह हार गूँथती प्रतिपलभरती मोती के चुम्बन,<br>चिर सजल, सजल करुणा से<br>लहरों के चल करतल में उसके ओसों का अंचलचाँदी के चंचल उडुगण!<br><br>
वह मृदु मुकुलों लघु परिमल के मुख घन-सी जो लीन अनिल में<br>भरती मोती के चुम्बनअविकल,<br>लहरों सुख के चल करतल में<br>उमड़े सागर-सी चाँदी के चंचल उडुगणजिसमें निमग्न उर-तट-स्थल!<br><br>
वह लघु परिमल के घनस्वप्निल शयन-मुकुल-सी<br>जो लीन अनिल में अविकल,<br>सुख है मुँदे दिवस के उमड़े सागरद्युति-सी<br>दल, जिसमें निमग्न उरमें सोया जग का अलि नीरव जीवन-तट-स्थलगुँजन कल!<br><br>
वह स्वप्निल शयन-मुकुल-सी<br>है मुँदे दिवस नभ के द्युतिस्नेह श्रवण में दिशि का गोपन-दलसम्भाषण,<br>उर नयनों के मौन मिलन में सोया जग का अलि<br>नीरव जीवन-गुँजन कलप्राणों का मधुर समर्पण!<br><br>
वह एक बूँद संसृति की नभ के स्नेह श्रवण विशाल करतल पर डूबे असीम सुषमा में<br>दिशि का गोपनसब ओर-सम्भाषण,<br>नयनों छोर के मौन मिलन में<br>प्राणों का मधुर समर्पणअन्तर!<br><br>
वह एक बूँद संसृति झंकार विश्व जीवन की<br>नभ के विशाल करतल पर<br>हौले-हौले होती लय डूबे असीम सुषमा में<br>वह शेष, भले ही अविदित, सब ओरवह शब्द-छोर के अन्तरयुक्त शुचि आशय!<br><br>
झंकार विश्व जीवन की<br>वह एक अनन्त प्रतीक्षा हौले-हौले होती लय<br>नीरवस अनिमेष विलोचन, वह शेषअस्पृश्य, भले ही अविदितअदृश्य,<br>विभा वह शब्द, जीवन की साश्रु-युक्त शुचि आशयनयन क्षण!<br><br>
वह एक अनन्त प्रतीक्षा<br>शशि-किरणों से उतरी नीरवस अनिमेष विलोचनचुपके मेरे आँगन पर,<br>अस्पृश्यउर की आभा में कोई, अदृश्य, विभा वह,<br>जीवन की साश्रु-नयन क्षणअपनी ही छवि से सुन्दर!<br><br>
वह शशि-किरणों से उतरी<br>खड़ी दृगों के सम्मुख चुपके मेरे आँगन परसब रूप,<br>रेख, रंग ओझल अनुभूति मात्र-सी उर की आभा में कोई,<br>अपनी ही छवि से सुन्दरआभास-शान्त, शुचि उज्जवल!<br><br>
वह खड़ी दृगों के सम्मुख<br>सब रूप, रेख, रंग ओझल<br>अनुभूति मात्र-सी उर में<br>आभास-शान्त, शुचि उज्जवल!<br><br> वह है, वह नहीं, अनिर्वच,<br>जग उसमें, वह जग में लय,<br>साकार चेतना-सी वह<br>जिसमें अचेत जीवाशय! <br><br/poem>