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दो लड़के / सुमित्रानंदन पंत

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|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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मेरे आँगन में, (टीले पर है मेरा घर)
दो छोटे-से लड़के आ जाते है अकसर!
नंगे तन, गदबदे, साँबले, सहज छबीले,
मिट्टी के मटमैले पुतले, - पर फुर्तीले।
मेरे आँगन में, (जल्दी से टीले पर है मेरा घर)<br>के नीचे उधर, उतरकर दो छोटे-से लड़के आ वे चुन ले जाते है अकसर!<br>कूड़े से निधियाँ सुन्दर- नंगे तनसिगरेट के खाली डिब्बे, गदबदेपन्नी चमकीली, साँबले, सहज छबीलेफीतों के टुकड़े,<br>तस्वीरे नीली पीली मिट्टी मासिक पत्रों के मटमैले पुतलेकवरों की, औ\' बन्दर से किलकारी भरते हैं, खुश हो- पर फुर्तीले।<br><br>हो अन्दर से। दौड़ पार आँगन के फिर हो जाते ओझल वे नाटे छः सात साल के लड़के मांसल
जल्दी से टीले के नीचे उधर, उतरकर<br>वे चुन ले जाते कूड़े से निधियाँ सुन्दरलगती नग्न देह, मोहती नयन-<br>मन, सिगरेट मानव के खाली डिब्बे, पन्नी चमकीली,<br>नाते उर में भरता अपनापन! फीतों मानव के टुकड़े, तस्वीरे नीली पीली<br>बालक है ये पासी के बच्चे मासिक पत्रों रोम-रोम मावन के साँचे में ढाले सच्चे! अस्थि-मांस के कवरों इन जीवों कीही यह जग घर, औ\' बन्दर से<br>किलकारी भरते हैंआत्मा का अधिवास न यह- वह सूक्ष्म, खुश होअनश्वर! न्यौछावर है आत्मा नश्वर रक्त-हो अन्दर से।<br>मांस पर, दौड़ पार आँगन के फिर हो जाते ओझल<br>वे नाटे छः सात साल के लड़के मांसल<br><br>जग का अधिकारी है वह, जो है दुर्बलतर!
सुन्दर लगती नग्न देहवह्नि, मोहती नयन-मनबाढ, उल्का, झंझा की भीषण भू पर कैसे रह सकता है कोमल मनुज कलेवर? निष्ठुर है जड़ प्रकृति, सहज भुंगर जीवित जन,<br>मानव के नाते उर में भरता अपनापनको चाहिए जहाँ, मनुजोचित साधन!<br>क्यों न एक हों मानव के बालक है ये पासी के बच्चे<br>रोम-रोम मावन के साँचे में ढाले सच्चे!<br>मानव सभी परस्पर अस्थि-मांस के इन जीवों की ही यह मानवता निर्माण करें जग घर,<br>में लोकोत्तर। आत्मा जीवन का अधिवास न यह- वह सूक्ष्म, अनश्वर!<br>न्यौछावर है आत्मा नश्वर रक्त-मांस प्रासाद उठे भू परगौरवमय,<br>जग मानव का अधिकारी है वहसाम्राज्य बने, जो है दुर्बलतर!<br><br>मानव-हित निश्चय।
वह्नि, बाढ, उल्का, झंझा की भीषण भू पर<br>कैसे रह सकता है कोमल मनुज कलेवर?<br>निष्ठुर है जड़ प्रकृति, सहज भुंगर जीवित जन,<br>मानव को चाहिए जहाँ, मनुजोचित साधन!<br>क्यों न एक हों मानव-मानव सभी परस्पर<br>मानवता निर्माण करें जग में लोकोत्तर।<br>जीवन का प्रासाद उठे भू पर गौरवमय,<br>मानव का साम्राज्य बने, मानव-हित निश्चय।<br><br> जीवन की क्षण-धूलि रह सके जहाँ सुरक्षित,<br>रक्त-मांस की इच्छाएँ जन की हों पूरित!<br>-मनुज प्रेम से जहाँ रह सके,-मावन ईश्वर!<br>और कौन-सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर? <br><br/poem>
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