|संग्रह=
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{{KKCatKavita}}<poem>निर्वाणोन्मुख आदर्शों के अंतिम दीप शिखोदय! - <br> जिनकी ज्योति छटा के क्षण से प्लावित आज दिगंचल, - <br> गत आदर्शों का अभिभव ही मानव आत्मा की जय<br>अत: पराजय आज तुम्हारी जय से चिर लोकोज्वल!<br>मानव आत्मा के प्रतीक! आदर्शों से तुम ऊपर,<br>निज उद्देश्यों से महान, निज यश से विद, चिरंतन;<br>सिद्ध नहीं तुम लोक सिद्धि के साधक बने महत्तर,<br>विजित आज तुम नर वरेण्य, गण जन विजयी साधारण!<br>युग युग की संस्कृतियों का चुन तुम्नए सार सनातन<br>नव संस्कृति का शिलान्यास करना चाहा भव शुभकर<br>साम्राज्यों ने ठुकरा दिया युगों का वैभव पाहन -<br>पदाघात से मोह मुक हो गया आज जन अन्तर!<br>दलित देश के दुर्दम नेता, हे ध्रुव, धीर धुरन्धर,<br>आत्मशक्ति से दिया जाति-शव को तुमने जीवन बल;<br>विश्व सभ्यता का होना था नखशिख नव रूपान्तर,<br>राम राज्य का स्वप्न तुम्हारा हुआ न यों ही निष्फल!<br>विकसित व्यक्तिवाद के मूल्यों का विनाश था निश्चय,<br>वृद्ध विश्व सामन्त काल का था केवल जड खंडहर!<br>हे भारत के हृदय! तुम्हारे साथ आज नि:संशय<br>चूर्ण हो गया विगत सांस्कृतिक हृदय जगत का जर्जर!<br>गत संस्कृतियों का आदर्शों का था नियत पराभाव,<br>वर्ग व्यक्ति की आत्मा पर थे सौध धाम जिनके स्तिथ <br><br/poem>