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ग्राम चित्र / सुमित्रानंदन पंत

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{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह=ग्राम्‍या ग्राम्यान / सुमित्रानंदन पंत
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<poem>
यहाँ नहीं है चहल पहल वैभव विस्मित जीवन की,
यहाँ डोलती वायु म्लान सौरभ मर्मर ले वन की !
आता मौन प्रभात अकेला, संध्या भरी उदासी,
यहाँ घूमती दोपहरी में स्वप्नों की छाया सी !
यहाँ नहीं है चहल पहल वैभव विस्मित जीवन कीविद्युत दीपों का दिवस निशा में निर्मित, <br> यहाँ डोलती वायु म्लान सौरभ मर्मर ले वन की अँधियाली में रहती गहरी अँधियाली भय-कल्पित !<br>आता मौन प्रभात अकेलायहाँ खर्व नर (वानर ?) रहते युग युग से अभिशापित, संध्या भरी उदासी, <br> यहाँ घूमती दोपहरी अन्न वस्त्र पीड़ित असभ्य, निर्बुद्धि, पंक में स्वप्नों की छाया सी पालित !<br><br>
यहाँ यह तो मानव लोक नहीं विद्युत दीपों रे, यह है नरक अपरिचित, यह भारत का दिवस निशा में निर्मितग्राम, <br>अँधियाली में रहती गहरी अँधियाली भय-कल्पित !<br>यहाँ खर्व नर (वानर ?) रहते युग युग सभ्यता संस्कृति से अभिशापित, <br>अन्न वस्त्र पीड़ित असभ्य, निर्बुद्धि, पंक में पालित निर्वासित !<br><br>
यह तो मानव लोक नहीं रेझाड़ फूँस के विवर, यह है नरक अपरिचित, <br>-यही क्या जीवन शिल्पी के घर ? यह भारत का ग्राम,कीड़ों-सभ्यता संस्कृति से निर्वासित !<br><br>रेंगते कौन ये ? बुद्धि प्राण नारी नर ?
झाड़ फूँस अकथनीय क्षुद्रता, विवशता भरी यहाँ के विवरजन में, गृह-यही क्या जीवन शिल्पी के घर गृह में है कलह, खेत में कलह, कलह है मग में ?<br>कीड़ोंयह रवि शशि का लोक,-से रेंगते कौन ये ? बुद्धि प्राण नारी नर ?<br><br>जहाँ हँसते समूह में उडुगण, जहाँ चहकते विहग, बदलते क्षण क्षण विद्युत् प्रभ घन ! यहाँ वनस्पति रहते, रहती खेतों की हरियाली, यहाँ फूल हैं, यहाँ ओस, कोकिला, आम की डाली !
अकथनीय क्षुद्रता, विवशता भरी ये रहते हैं यहाँ के जन में, <br>गृह-गृह में है कलहऔर नीला नभ, खेत में कलहबोई धरती, कलह है मग में ?<br> यह रवि शशि सूरज का लोक,-जहाँ हँसते समूह में उडुगण, <br>जहाँ चहकते विहग, बदलते क्षण क्षण विद्युत् प्रभ घन !<br>यहाँ वनस्पति रहते, रहती खेतों की हरियाली, <br>यहाँ फूल हैं, यहाँ ओस, कोकिलाचौड़ा प्रकाश, आम की डाली ज्योत्स्ना चुपचाप विचरती !<br><br>
ये रहते हैं यहाँ, और नीला नभ, बोई धरती, <br>सूरज का चौड़ा प्रकाश, ज्योत्स्ना चुपचाप विचरती !<br><br> प्रकृति धाम यह: तृण तृण कण कण जहाँ प्रफुल्लित जीवित, <br>
यहाँ अकेला मानव ही रे चिर विषण्ण जीवन-मृत !!
</poem>
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