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नख़रेदार / अशोक चक्रधर
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04:19, 28 अक्टूबर 2009
|रचनाकार=अशोक चक्रधर
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भूख लगी है
चलो, कहीं कुछ खाएं ।
देखता रहा उसको
खाते हुए लगती है कैसी,
देखती रही मुझको
खाते हुए लगता हूँ कैसा ।
नख़रेदार पानी पिया
नख़रेदार सिगरेट
ढाई घंटे बैठ वहाँ
बाहर निकल आए ।
</poem>
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