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पुलिस-महिमा / काका हाथरसी

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|रचनाकार=काका हाथरसी
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[[Category:हास्य रस]]
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पड़ा - पड़ा क्या कर रहा , रे मूरख नादान
 
दर्पण रख कर सामने , निज स्वरूप पहचान
 
निज स्वरूप पह्चान , नुमाइश मेले वाले
 
झुक - झुक करें सलाम , खोमचे - ठेले वाले
 
कहँ ‘ काका ' कवि , सब्ज़ी - मेवा और इमरती
 
चरना चाहे मुफ़्त , पुलिस में हो जा भरती
 
 
कोतवाल बन जाये तो , हो जाये कल्यान
 
मानव की तो क्या चले , डर जाये भगवान
 
डर जाये भगवान , बनाओ मूँछे ऐसीं
 
इँठी हुईं , जनरल अयूब रखते हैं जैसीं
 
कहँ ‘ काका ', जिस समय करोगे धारण वर्दी
 
ख़ुद आ जाये ऐंठ - अकड़ - सख़्ती - बेदर्दी
 
 
शान - मान - व्यक्तित्व का करना चाहो विकास
 
गाली देने का करो , नित नियमित अभ्यास
 
नित नियमित अभ्यास , कंठ को कड़क बनाओ
 
बेगुनाह को चोर , चोर को शाह बताओ
 
‘ काका ', सीखो रंग - ढंग पीने - खाने के
 
‘ रिश्वत लेना पाप ' लिखा बाहर थाने के
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