<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
<td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td> '''शीर्षक: '''परसाई जी की बात पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया <br> '''रचनाकार:''' [[नरेश सक्सेनाशीन काफ़ निज़ाम]]</td>
</tr>
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पैंतालिस साल पहले, जबलपुर में परसाई जी के पीछे लगभग भागते हुए मैंने सुनाई अपनी कविता और पूछा क्या इस पर ईनाम मिल सकता है "अच्छी कविता पर सज़ा ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी मिल सकती है" बँट गया सुनकर मैं सन्न रह इन्सान अपने आप में कितना सिमट गया क्योंकि उस वक़्त वह छात्रों की एक कविता प्रतियोगिता की अध्यक्षता करने जा रहे थे
आज चारों तरफ़ सुनता हूँ अब क्या हुआ कि ख़ुद को मैं पहचानता नहीं वाह-वाह-वाह-वाह, फिर से मंच और मीडिया के लकदक दोस्त लेते हैं हाथों-हाथ सज़ा जैसी कोई सख़्त बात तक नहीं कहता मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छँट गया
हम मुन्तज़िर थे शाम से सूरज के दोस्तों लेकिन वो आया सर पे तो शक होने लगता है क़द अपना घट गया परसाई गाँवों को छोड़ कर तो चले आए शहर में जाएँ किधर कि शहर से भी जी की बात पर नहीं उचट गया किससे पनाह मांगे कहाँ जाएँ क्या करें फिर आफ़ताब रात का घूँघट उलट गया सैलाब-ए-नूर में जो रहा मुझ से दूर-दूर अपनी कविता परवो शख़्स फिर अन्धेरे में मुझसे लिपट गया
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